Kuchh pal ki kahani kuchh anshuni kahani कुछ पल की कहानी, कुछ अनसुनी कहानी (Story of some moment, some unheard story)
इस साल को अलविदा कहते हुए एक बार फिर उन अच्छी यादों को सहेज लें जो भविष्य में भी हमारी प्रेरणा रहेंगी!
अमर चित्र कथा’ के फाउंडर अनंत पाई का कहना था कि आपका इतिहास अच्छा हो या बुरा, आप इसे स्वीकार करें या फिर नकार दें, पर कम से कम आपको अपने इतिहास के बारे में पता होना चाहिए। आज की पीढ़ी के लिए भी अतीत की उन घटनाओं, किस्सों और बातों को जानना ज़रूरी है, जिनसे सीखकर या प्रेरणा लेकर हम आने वाले कल की नींव तय कर सकते हैं।
इसलिए द बेटर इंडिया लगातार इतिहास की उन कहानियों को आप तक पहुंचाने की कोशिश करता है जो वक़्त के साथ धुंधला गयी हैं। या फिर ऐसे किस्से-कहानियाँ, जिनको हमारे इतिहास के पन्नों में कोई खास जगह नहीं मिली। हमारा यही प्रयास है कि हम आपको उन नायक-नायिकाओं की कहानियों से रू-ब-रू करायें, जिनका जिक्र हमारी स्कूली किताबों में नहीं होता।
साल 2019 के खत्म होते ही, एक और साल अतीत के पन्नों में समा जायेगा। इसलिए आज इस अंतिम पड़ाव पर हम इस साल लिखी गयीं उन इतिहास की कहानियों को सहेज रहे हैं, जिन्हें हमारे पाठकों ने सबसे ज्यादा पढ़ा है और सराहा है। एक बार फिर आप इन कहानियों को पढ़ें, अपने बच्चों को सुनाएं और फिर दूसरों से साझा करें ताकि हमारे इतिहास के पन्नों पर धूल न जमें!
1. 1971 : जब भुज की 300 महिलाओं ने अपनी जान ख़तरे में डाल, की थी वायुसेना की मदद
8 दिसम्बर 1971 की रात को भारत-पाक युद्ध के दौरान, भुज में भारतीय वायुसेना के एयरस्ट्रिप पर, सेबर जेट विमान के एक दस्ते ने 14 से अधिक नापलम बम गिराए। इसकी वजह से यह एयरस्ट्रिप टूट गयी और भारतीय लड़ाकू विमानों का उड़ान भरना नामुमकिन हो गया।
भारतीय वायु सेना ने एयरस्ट्रिप की मरम्मत के लिए सीमा सुरक्षा बल के जवानों को बुलाया, पर समय तेज़ी से गुज़र रहा था और मज़दूर कम थे। ऐसे में, भुज के माधापुर गाँव से 300 गाँव वाले अपने घरों से निकलकर भारतीय वायुसेना की मदद के लिए आगे आये, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं थीं। मन में देशभक्ति लिए, वे सभी अपने घरों से निकल पड़ी।
यह शायद उनकी असाधारण देशभक्ति ही थी, कि उन्होंने एयरस्ट्रिप की मरम्मत जैसे असंभव काम को सिर्फ़ 72 घंटों के भीतर संभव कर दिखाया!
तत्कालीन जिला कलेक्टर ने इन 300 बहादुर महिलाओं को इस नेक कार्य में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया।
युद्ध के दौरान कार्निक भुज एयरपोर्ट के इंचार्ज थे, और इन महिलाओं को प्रोत्साहित करने वालों में स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्निक का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। जल्द ही, इस ऐतिहासिक घटना को ‘भुज : द प्राइड ऑफ़ इंडिया’ फिल्म के नाम से परदे पर उतारा जायेगा।
इतिहास के इस दिलचस्प किस्से को विस्तार से पढ़ने के लिए
2. 15 की उम्र में शादी, 18 में विधवा : कहानी भारत की पहली महिला इंजीनियर की!
एक मध्यम वर्गीय तेलगु परिवार में जन्मी ए ललिता की शादी तब कर दी गई थीं जब वह मात्र 15 वर्ष की थीं। 18 साल की आयु में ये एक बच्ची की माँ बनीं और दुर्भाग्यवश इसी के चार महीने बाद ही उनके पति का निधन हो गया। 4 माह की श्यामला अब पूरी तरह से अपनी विधवा माँ की ज़िम्मेदारी थी।
हालांकि मद्रास में तब सती प्रथा का चलन नहीं था फिर भी एक विधवा को समाज से अलग, एक निर्वासित व कठिन जीवन जीना पड़ता था। प्रगतिशील विचारों व दृढ़ निश्चय वाली ललिता ने वैसे समय में समाज के दबाव में न आकर अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाने की ठानी और इंजीनियरिंग करने का फैसला किया। यहीं से शुरू हुआ उनका वह सफर जिसने उन्हें भारत की पहली महिला इंजीनियर बना दिया।
ललिता के पिता पप्पू सुब्बा राव, मद्रास विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, गिंडी (CEG) में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के प्रोफेसर थे। उन्होने वहाँ के प्रधानाचार्य केसी चाको, पब्लिक इन्सट्रक्शन के निदेशक आरएम स्ताथम से बात की।
दोनों ने इस कॉलेज में एक महिला को दाखिला देने का समर्थन किया। यह CEG के इतिहास में पहली बार होने वाला था। ललिता की बेटी श्यामला बताती हैं, “लोगों की सोच के विरुद्ध, कॉलेज के विद्यार्थी का रवैया बहुत सहयोगपूर्ण था। सैकड़ों लड़कों के बीच वह अकेली लड़की थीं पर उन्हें कभी किसी ने असहज नहीं होने दिया। वहाँ अधिकारियों ने उनके लिए एक अलग हॉस्टल का प्रबंध भी किया। जब वह कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर रही थीं तब मैं अपने अंकल के पास रहती थी और वो सप्ताह के अंत में मुझसे मिलने आया करती थीं।”
उन्होंने अपनी पढ़ाई के बाद नौकरी की और देश में अन्य महिलाओं के लिए भी इंजीनियरिंग के ररास्ते खोल दिए। अपने पूरे करियर में ललिता ने दो बातों का हमेशा ख्याल रखा – पहला, उनकी बेटी का पालन पोषण प्यार भरे माहौल में हो और दूसरा, एक पुरुष प्रधान समाज में उनका औरत होना किसी भी प्रकार की रुकावट न बने।
इस साहसी महिला की पूरी कहानी आप
3. वह अमरिकी, जिसने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और भारत के किसानों को सेब उगाना सिखाया!
Samuel Stokes
अमेरिका के एक जाने-माने परिवार का बेटा और स्टॉक्स एंड पैरिश मशीन कंपनी का वारिस होते हुए भी सैम्युल इवान्स स्टॉक्स जूनियर ने अपना जीवन भारत में कोढ़ से पीड़ित मरीजों की सेवा करते हुए बिताया।
उन्होंने न केवल अपनी ज़िन्दगी भारत में बितायी बल्कि अंग्रेज़ों के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता संग्राम में भाग भी लिया। यह कहानी है स्टॉक्स जूनियर की सत्यानंद बनने की। सत्यानंद, जो गरीबों के हित के रखवाले थे और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी थे।
इनका नाम शायद आपको इतिहास के पन्नों में न मिले, लेकिन द बेटर इंडिया पर आप इनकी कहानी पढ़ सकते हैं।
साल 1904 में अमेरिका में अपनी आराम की ज़िन्दगी को छोड़ सैम्युल भारत आये। उनके पिता को लगा कि उनका बेटा कुछ समय के लिए ट्रिप पर जा रहा है। लेकिन वे अनजान थे कि यह यात्रा उनके बेटे को अमेरिकी से भारतीय बना देगी।
सैम्युल ने भारत आकर हिमालय की गोद में, शिमला के पास कोढ़-पीड़ितों की सेवा करना शुरू कर दिया। उन्होंने भारतीयों की तरह कपड़े पहनना शुरू किया। इतना ही नहीं उन्होंने पहाड़ी बोली बोलना भी सीखा। इससे भारतीय उन्हें अपना मानने लगे।
साल 1916 में सैम्युल को अमेरिका में उगाये जाने वाले सेब की एक प्रजाति के बारे में पता चला। जिसे देखकर उन्हें लगा कि हिमालय के मौसम और मिट्टी में इसे उगाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने पहाड़ी लोगों को सेब की खेती करने के लिए जागरूक किया ताकि उन्हें रोजगार मिल सके।
केवल इतना ही नहीं उन्होंने अपने सम्पर्कों के जरिये इन लोगों के लिए दिल्ली के बाजार के रास्ते भी खुलवा दिए। इसलिए सैम्युल को ‘हिमालय का जोहनी एप्प्लसीड’ भी कहा जाता है। यदि आज आप भारत में सेब खा पा रहे हैं तो वह सत्यानंद उर्फ़ सैम्युल की ही देन है।
भारत में सत्यानंद का इतिहास बहुत ही निराला है लेकिन फिर भी बहुत से भारतीय उनसे अनजान हैं। इसलिए उनके बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए
4. उत्तराखंड की लिखाई कला – वक़्त ने किया क्या हसीं सितम!
उत्तरखंड की इस विरासत से हमारा परिचय कराया है हमारी ट्रेवल राइटर अलका कौशिक ने। वह लिखती हैं कि अल्मोड़ा के पिछले सफ़र में उन्होंने महसूस किया कि पहाड़ों के बाज़ार की रौनक और दुकानों-मकानों के दरवाज़ों-खिड़कियों पर काठ की कलाकारी अब चुप पड़ने लगी है। लकड़ी के दरवाज़ों और चौखटों की विदाई वेला अब ज्यादा दूर नहीं है। धरोहरों का चुपचाप, हौले-हौले सिमटना बेशक, चौंकाता नहीं है, लेकिन इस तीखे अहसास ने उन्हें भीतर तक बींध डाला था कि इसके साथ ही एक भरपूर सांस्कृतिक परिवेश हमेशा के लिए नष्ट होने की कगार पर है।
एक ज़माना हुआ जब हर घर की देहरी से गुजरते हुए लकड़ी के दरवाज़ों के ऊपर की मेहराबों के बीचों-बीच से गणेश की मूरत झांका करती थी। घरों के मुख्यद्वार को खोली कहते हैं, और इस तरह गणेश हो गए खोली के गणेश। अब चूंकि घर आरसीए के बनने लगे हैं, सीमेंट की छतें, कंक्रीट की दीवारें और एल्युमीनियम-स्टील के दरवाज़े-खिड़कियां, तो नक्काशियों में गणेश के मोटिफ भी गुम हो चुके हैं। घरों में न बचे हैं काष्ठकला की नक्काशियों के अद्भुत नमूनों वाले द्वार और न खोली के गणेश!
बचपन में जब इन गांवों से गुजरना होता था तो लिखाई कला से सजे द्वार-खिड़कियों के दर्शन होते थे। जो घर जितना समृद्ध होता, उसके द्वार-चौखटों की कारीगरी भी उतनी ही समृद्ध होती। इन नक्काशीदार द्वार-खिड़कियों को देखकर लगता जैसे पूरी बस्ती को किसी कारीगर के हाथों का दिव्य स्पर्श मिला हो। 19वीं सदी में यह पहाड़ी काष्ठकला अपने शबाब पर थी।
उस दौर में शिल्पकार को समाज में सम्मान प्राप्त था। दरअसल, काठ से खेलने वाले उन शिल्पियों को हुनर का वो व्याकरण जुबानी याद था जिस पर बड़े-बड़े ग्रंथ रचे गए थे। काष्ठ-शिल्प पर बात करने वाले प्राचीन ग्रंथों बृहत संहिता औरशिल्प शास्त्र में पेड़ों को काटने के मौसम, उनकी रीति, उन्हें सुखाने और उनसे शिल्प गढ़ने के विधि-विधान सिमटे थे। ये ग्रंथ काठ से खेलने वाले शिल्पकारों की महिमा को स्वीकार करते थे।
पर आज कहानी कुछ और है। हमने जैसे-जैसे आधुनिकीकरण की चादर ओढ़ी तो कहीं न कहीं अपनी इस परम्परा के स्पर्श को बिसरा दिया। अलका कौशिक एक बार फिर उत्तराखंड के उन पुराने गली-मोहल्लों से यहाँ की लिखाई कला के अस्तित्व को सहेज लायी हैं। इस भूली-बिसरी कला के कुछ छींटे अपने मन पर डालने के लिए और जानें कि आज भी कितना कुछ छिपा है हमारी विरासत में!
5 . आज़ादी से अब तक के हर चुनाव के रोचक किस्सों की बानगी दिखाता, देश का पहला ‘इलेक्शन म्युजि़यम’संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रयोग होने जा रहा था। यह अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 का दौर था। इससे पहले चुनाव आयोग एक अजब परेशानी से जूझ रहा था। मतदाता सूची में दर्ज सैंकड़ों-हजारों नहीं बल्कि लाखों महिला वोटरों की पहचान ही नहीं हो पा रही थी। सूची में मतदाताओं के कॉलम में कुछ इस तरह का ब्योरा दर्ज था – ”छज्जू की मां, नफे सिंह की पत्नी, बलदेव की पत्नी, चंदरमोहन नेगी की सुपुत्री” … वगैरह, वगैरह।
यह आज़ाद हिंदुस्तान की उन महिला वोटरों की कहानी थी जो वोटर सूची बनाने उनके घर पहुंचे चुनाव कर्मियों को अपना नाम नहीं बताना चाहती थी। किसी अजनबी के सामने अपना नाम उद्घाटित न करने के अपने ऊसूल पर कायम रही स्वतंत्र भारत की पहली पीढ़ी की महिला वोटरों की इस अजब दास्तान से जूझते चुनाव आयोग को आखिरकार निर्देश जारी करना पड़ा कि अपनी सही पहचान बताने वाली महिलाएं ही मतदाता रह सकती हैं। इसके बाद एक बार फिर से उन महिलाओं का नाम वोटर सूची में जोड़ने की कवायद शुरू हुई, जो रजिस्टर्ड वोटर होते हुए भी मतदान करने की हकदार नहीं थी। ऐसी ज्यादातर महिलाएं बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और विंध्य प्रदेश से थीं।
मतदाता सूची में संशोधन किए गए और 8 करोड़ महिला वोटरों में से करीब 80 लाख महिलाएं अपनी पहचान ज़ाहिर न करने के चक्कर में देश में लोकतंत्र के उस पहले पर्व का हिस्सा बनने से चूक गई थीं।
देश में अपनी तरह के इकलौते इलेक्शन एजुकेशन सेंटर-कम-म्युज़ियम (चुनाव शिक्षा केंद्र-सह-संग्रहालय) में ऐसे कितने ही किस्से करीने से संवार कर रखे गए हैं। यह इलेक्शन म्युजि़यम राजधानी दिल्ली के कश्मीरी गेट इलाके में 1890 में बनी उस इमारत में खोला गया है जिसमें 1940 तक सेंट स्टीफंस कॉलेज चलता रहा था। 1915 में कॉलेज में गाँधीजी भी आए थे और इमारत को उनके जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण स्थलों में गिना जाता है। आज इसी इमारत में दिल्ली चुनाव आयोग का दफ्तर है।
इतिहास से चुनकर ऐसी ही और कहानियां हम आप तक अगले साल भी लेकर आएंगे। इस इतिहास को सहेजने में हमारा साथ दें और पढ़ते रहें ‘द बेटर इंडिया’!
विवरण – निशा डागर
संपादन – मानबी कटोच
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